Wednesday, June 16, 2021

सँजोऊ क्या

 सँजोऊ क्या

बचपन से सीखा संजोना है, कुछ... 

कभी कपडे, कभी खिलोने, कभी पैसे और  

कभी चीजें जो नहीं थीं घर में.

 

नहीं सोचा था तो ये कि सँजोऊ 

वो आवाजे वो चेहरे जिनमे चमक थी 

जो जवां थी, बे मकसद थीं 

 बस थीं... असली

 

जिनमे प्यार और  दर्द का था एक शुद्ध एहसास 

नहीं था तो बस कोई मतलब, नीति या स्वार्थ 

 

वो तुजुर्बे और भावों के दरिये, जो बने थे कितने ही सालों में 

मगर लगे हमें बेमानी और पुराने, इस "नये दौर के ज़माने" में

 

नहीं था वक़्त हमारे पास, उन्हें संजोने का 

कोई कारण भी नहीं था हमारे पास, उन्हें संजोने का 

हम "मॉडर्न" हो रहे थे 

और "तैयार" थे बनाने और संजोने, हमारे "अपने तुजुर्बे"!

 

आज जब खोली अपनी पोटली तो, 

तो सुब कुछ पाया, सब जो संजोया था,

मगर लगी ये खाली, और हैं हम परेशां 

क्योंकि हमे तो अपनी समझ पे भरोसा था 

 

संजोया वो सब जो बिकता है सड़क पर 

ना संजोया जो प्यार और एहसास

बस यही एक धोखा था... 

 

-तनु मुटरेजा (जून १६' २०२१)


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